Monday, September 26, 2011

ग़ज़ल

सर से पानी गुज़र गया होगा
डूब कर फिर वो मर गया होगा
धुन भी दुनिया सुधारने की सवार
आख़िरश खुद सुधर गया होगा
कोई ख़्वाहिश न जब हुई पूरी
हार कर सब्र कर गया होगा
अब न रोता है वो न हँसता है
ज़ुल्म हद से गुज़र गया होगा
भूखा बीमार तन पे तार नहीं
वो तो जीते जी मर गया होगा
सुनते ही मेरे हुस्न की तारीफ़
चांद उफ़ुक़ से उतर गया होगा
रुठ कर जो गया है अपनों से
कौन जाने किधर गया होगा
आइनों से वो मुहँ छुपाता है
अपनी सूरत से डर गया होगा
घर ही लौटा न पहुँचा शाला में
बच्चा पिटने से डर गया होगा
हो के गर्मीं में तर – बतर सूरज
झील में झट उतर गया होगा
तज्रिबेकार माना “कमसिन” को
क़िस्सा ऐमाल पर गया होगा

ग़ज़ल

आसमॉ पर मेघ काले जब से गहराने लगे
भूले - बिसरे – से फ़साने मुझको याद आने लगे
देखते ही मुझ को उठ कर बज़्म से जाने लगे
जाने क्यूँ मुझ से वो अब इस दर्जा कतराने लगे
मैंने पूछा, कैसे ख़ुश रहते हैं आप इस दौर में
कुछ न बोले, मुझ को देखा और मुस्काने लगे
तुम से मिलने की मेरी बेचैनियों ने ये किया
रो पड़े अहसास और जज़्बात घबराने लगे
तुम को देखा, ख़ुश्क ऑखें अश्क़ बरसाने लगीं
रेत का सागर था दिल में खेत लहराने लगे
इक नदी – सी भर गई है मेरे घर के सामने
कागज़ी नावों में बच्चे झूमने – गाने लगे
रात को यूँ देर से घर लौटना अच्छा नहीं
सहमे – सहमे रास्ते मुझ को ये समझाने लगे
जो कि मिस्ले – तिफ़्ल थे कल तक वही “कमसिन” हमें
अब जहाँदारी ज़माने भर की सिखलाने लगे

ग़ज़ल

वो रोता है क़िस्मत में बच्चा नहीं है
ये रोता है बेटी है बेटा नहीं है
सुहा जाए कब दिल को क्या दिल ही जाने
किसी का भी बस दिल पे चलता नहीं है
असामी करोड़ों का होगा तो होगा
किसी को वो कौड़ी भी देता नहीं है
जो जीवन को जाना तो “हव्वा” कराही
हक़ीक़त है आदम ! ये सपना नहीं है
वो धनवान हैं जो हैं बेइल्मो - क़ाहिल
जो दाना है पास उन के पैसा नहीं है
वो क्या कर सकेगा ज़माने की ख़ातिर
कभी जिस से घर अपना छूटा नहीं है
मुहब्बत के सागर का तल है न साहिल
जो डूबा है इस में वो उभरा नहीं है
अगर चार होती हैं उल्फ़त में ऑखें
तो हर हाल में प्रेम अंधा नहीं है
हर इक शख़्स बेमिस्ल होता है “कमसिन”
कोई भी किसी और जैसा नहीं है

बेचारी

साईकिल के पीछे
केरियर पर लदी
स्त्री के मुँह से
एकाएक निकल पड़ा
कोई सीधा – साधा
मासूम सा प्रश्न
चालक जो उसका
पति परमेश्वर भी है
तिलमिलाया
अपनी बुज़ुर्ग साइकिल
के पाँवों में
“खच” से ब्रेक लगाया
आव देखा न ताव
चिड़िया सी भोली
स्त्री के
गाल पर
रसीद कर दी
तड़ाक से एक थप्पड़
स्त्री
मोटे – मोटे
ऑसूओं के पार
नीले आसमान को ताकते हुये
कुछ बुदबुदाई