इश्क़ का आगाज़ है, कुछ मत कहो नग़्माख्वा दिल – साज़ है, कुछ मत कहो वो अभी नाराज़ है, कुछ मत कहो दिल शिकस्ता साज़ है, कुछ मत कहो प्यार भी करता है गुस्से की तरह उस का यह अदांज़ है कुछ मत कहो बाँध कर पर जिसने छोड़े हैं परिन्दें वो कबुतर बाज़ हैं कुछ मत कहो चीख़ती हैं, बेजुबाँ ख़ामोशियाँ ये वही आवाज़ है, कुछ मत कहो अब है चिड़िया का मुहाफ़िज़ राम ही पहरे पे इक बाज़ है, कुछ मत कहो “कमसिन” अपनी है ग़ज़ल जैसी भी है हम को इस पर नाज़ है, कुछ मत कहो |
कृष्णा कुमारी कमसिन
Tuesday, October 18, 2011
इश्क़ का आगाज़ है, कुछ मत कहो
आसमॉ पर मेघ काले जब से गहराने लगे
आसमॉ पर मेघ काले जब से गहराने लगे भूल – बिसरे – से फ़साने मुझको याद आने लगे देखते ही मुझ को उठ कर बज़्म से जाने लगे जाने क्युँ मुझ से वो अब इस दर्जा कतराने लगे मैंने पूछा, कैसे ख़ुश रहते हैं आप इस दौर में कुछ न बोले, मुझ को देखा और मुस्काने लगे तुम से मिलने की मेरी बेचैनीयों ने ये किया रो पड़े अहसास और जज़्बात घबराने लगे तुम को देखा, ख़ुश्क आँखें अश्क़ बरसाने लगीं रेत का सागर था दिल में खेत लहराने लगें इक नदी सी भर गई है मेरे घर के सामने कागज़ी नावों में बच्चे झूमने – गाने लगे रात को युँ देर से घर लौटना अच्छा नहीं सहमे – सहमे रास्ते मुझ को ये समझाने लगे जो कि मिस्ले – तिफ़्ले थे कल तक वही “कमसिन” हमें अब जहाँदारी ज़माने भर की सिखलाने लगे कृष्णा कुमारी सी–368, मोदी हॉस्टल लाईन तलवंडीं,कोटा राज. |
Friday, October 7, 2011
कम से कम सामान रखना
कम से कम सामान रखना
ज़िन्दगी आसान रखना
फ़िक्र औरों की है लाज़िम
पहले अपना ध्यान रखना
हर कोई कतरा के चल दे
ऐसा क्या अभिमान रखना
भीड़ में घुलमिल के भी तू
अपनी कुछ पहचान रखना
ज्ञान बिन है व्यर्थ जीवन
कम से कम ये ज्ञान रखना
कर निबह काँटों से लेकिन
फूल का भी ध्यान रखना
तेरे दिल में जिसका दिल है
उस में अपनी जान रखना
हिज्र मज्ब़ूरी है “कमसिन”
वस्ल का अरमान रखना
लोग मतलब में दिवाने हो गये
लोग मतलब में दिवाने हो गये
कुछ ज़ियादा ही सयाने हो गये
हाल उसका मुझसे अब क्या पूछिये
उसको देखे तो ज़माने हो गये
हम तो यूँ ही हो गये जल्वानुमा
आप तो सचमुच दिवाने हो गये
मैंने रख दी सामने मज़बूरियाँ
वो ये समझे फिर बहाने हो गये
अस्ल सूरत देखना मुम्किन नहीं
आइने इतने पुराने हो गये
कब से दोहन कर रहा है आदमी
तंग क़ुदरत खज़ाने हो गये
बन के बच्ची खेलूँ “कमसिन” किस के साथ
अब तो बच्चे भी सयाने हो गये
‘फिर और महिला दिवस’
‘फिर और महिला दिवस’
एक बार फिर
पुरूषों ने मना लिया
एक और ‘महिला दिवस’
ज़माने भर के ताम-झाम
औपचारिकतायें
कर ली गई पूरी
ख़ुब बढ़ा-बढ़ा कर
चढ़ा-चढ़ा कर
किया गया नारी को
महिला मण्डित
मीडिया ने भी
बहती गंगा में
मल-मल कर
धोये हाथ
चंद चर्चित नारियों को
करके ‘हाईलाईट’
पृष्ठ भर-भर कर
बटोर ली वाही-वाही
(उन महिलाओं का क्या
जिनके लिये 8 मार्च
महज काली लकीरें हैं)
आ ……… हा……..आ……..हा
महिलायें हैं कि
फूली नहीं समाई
लेकिन
इस भारी-भरकम
शोर-शराबे में
कुचल कर रह गई
उन महिलाओं की
हृदय-विदारक चीख़-पुकार
हर दिन की तरह
इस दिन भी आई
जो किसी न किसी तरह
कोई न कोई / अपराध की
चपेट में
हर सैंतालीस मिनिट में
हुई बलात्कार की शिकार
किया गया / हर चौवालीस
मिनट में अपहरण
इसी दिन भी
उन्नीस महिलाओं को
दहेज की भभकती आग में
जलना पड़ा / धू – धू कर
छेड़छाड़ से हुई आहत
चौरासी नारियाँ
हर तीसरी मादा को
सहना पड़ा / क़रीबी रिश्तेदारों
का अत्याचार
चलिए / घरेलु हिंसा को
मारिए गोली
लेकिन (निर्ममता की सारी
हदें पार कर)
धारदार कैंची से
वात्सल्य-रस में / शराबोर
असंख्य मासूम / मादा-भ्रूणों के
छोटे…..छोटे ……..छोटे
टुकड़े करते / खूनी हाथ
बना देते हैं / जिसकी कोख को
क़त्लगाह…………!!!
वह
बेचारी औरत ???
Monday, September 26, 2011
ग़ज़ल
डूब कर फिर वो मर गया होगा
धुन भी दुनिया सुधारने की सवार
आख़िरश खुद सुधर गया होगा
कोई ख़्वाहिश न जब हुई पूरी
हार कर सब्र कर गया होगा
अब न रोता है वो न हँसता है
ज़ुल्म हद से गुज़र गया होगा
भूखा बीमार तन पे तार नहीं
वो तो जीते जी मर गया होगा
सुनते ही मेरे हुस्न की तारीफ़
चांद उफ़ुक़ से उतर गया होगा
रुठ कर जो गया है अपनों से
कौन जाने किधर गया होगा
आइनों से वो मुहँ छुपाता है
अपनी सूरत से डर गया होगा
घर ही लौटा न पहुँचा शाला में
बच्चा पिटने से डर गया होगा
हो के गर्मीं में तर – बतर सूरज
झील में झट उतर गया होगा
तज्रिबेकार माना “कमसिन” को
क़िस्सा ऐमाल पर गया होगा
ग़ज़ल
भूले - बिसरे – से फ़साने मुझको याद आने लगे
देखते ही मुझ को उठ कर बज़्म से जाने लगे
जाने क्यूँ मुझ से वो अब इस दर्जा कतराने लगे
मैंने पूछा, कैसे ख़ुश रहते हैं आप इस दौर में
कुछ न बोले, मुझ को देखा और मुस्काने लगे
तुम से मिलने की मेरी बेचैनियों ने ये किया
रो पड़े अहसास और जज़्बात घबराने लगे
तुम को देखा, ख़ुश्क ऑखें अश्क़ बरसाने लगीं
रेत का सागर था दिल में खेत लहराने लगे
इक नदी – सी भर गई है मेरे घर के सामने
कागज़ी नावों में बच्चे झूमने – गाने लगे
रात को यूँ देर से घर लौटना अच्छा नहीं
सहमे – सहमे रास्ते मुझ को ये समझाने लगे
जो कि मिस्ले – तिफ़्ल थे कल तक वही “कमसिन” हमें
अब जहाँदारी ज़माने भर की सिखलाने लगे