Friday, November 26, 2010

वो मजनूँ-सा मिट जाए ऐसा नहीं है




वो मजनूँ-सा मिट जाए ऐसा नहीं है


कि मुझ में मगर अक्से – लैला नहीं हैं


गुज़र ही गई उम्र सुहबत में लेकिन


मेरे दिल में क्या है, वो समझा नहीं है


मेरे वासिते वो जहाँ छोड़ देगा


ये कहने को है, ऐसा होता नहीं है


है इक़रार दिल में और इन्कार लब पर


वो कहता है फिर भी कि झूठा नहीं है




उसे प्यारी लगती है सारी ही दुनिया


मैं सोचूँ वो क्यूँ सिर्फ़ मेरा नहीं है


मैं इक टक उसे ताकती जा रही हूँ


मगर उस ने मुड़ कर भी देखा नहीं है


वो ख़ुशियों में शामिल है मेरी पर उस को


मेरे ग़म से कुछ लेना - देना नहीं है।


फ़रेब उसने अपनों से खाये हैं इसने


उसे मुझ पे भी अब भरोसा नहीं है




हो उस पार “कमसिन” कि इस पार लग जा


मुहब्बत का दरिया तमाशा नहीं है








कृष्णा कुमारी

उस के बिन बेगाना अपना घर लगता है



उस के बिन बेगाना अपना घर लगता है
अंजाना सा मुझको आज नगर लगता है
पल, महीनों से और घड़ियाँ बरसों सी गुज़रें
सदियों लम्बा तुम बिन एक प्रहर लगता है
दिन-दिन बढ़ता देख के उसका दीवानापन
उससे प्रेम जताते भी अब डर लगता है
मुझ में यूँ उसका खो जाना ठीक नहीं, वो
भूल जाएगा इक दिन अपना घर लगता है
वो हर फ़न का माहिर शख्स़ है साथी मेरा
यूँ मुझ से जलता हर एक बशर लगता है
यूँ तो उस पर बलिहारी है तन-मन लेकिन
उस के जुनूँ से थोड़ा-थोड़ा डर लगता है
उससे

जाकर तुम ही कह दो, अरी हवाओं!
उस के बिन अब जीना ही दूभर लगता है
कितने दर्द छुपे हैं उस की मुक्त हँसी में
मुझ को ऐसा जाने क्यूँ अक्सर लगता है
कहने को तो प्रेम के है बस ढ़ाई आखर
पढ़ने में तो इन को जीवन भर लगता है
उसकी मूरत है अब मेरे मन-मंदिर में
उस का दर ही अब मुझ को मंदर लगता है
प्रेम की आग में वर्ना बुत वो पिघल ही जाता
“कमसिन” उसका का तो दिल ही पत्थर लगता है


कृष्णा कुमारी कमसिन

आप फिर भी ख़फ़ा हैं तो हम क्या करें?


हम ने कर ली मनाने की कोशिश हज़ार, आप फिर भी ख़फ़ा हैं तो हम क्या करें?
क्या है शक की दवा, हम अगर आप के, सोच में बा-ख़ता हैं तो हम क्या करें?

ख़ुश हैं, नाख़ुश हैं हम, आप को इस से क्या, क्यूँ गवारा करें कोई दख़्ल आप का,
अपनी नज़रों में हम भी शहंशाह हैं, आप ख़ुद में ख़ुदा है तो हम क्या करें?


हम कभी घर से निकलें अगर काम से, या टहलने ही चल दें घड़ी दो घड़ी,
हाथ रखते हैं दिल पर हमें देख कर, आप भरते हैं आहें तो हम क्या करें?

आप कहते हैं हम आप को भा गये, जान हम पर निसार आप करने लगे,
मस्अला है ये ज़ाती ज़नाब आपका, आप हम पर फ़िदा हैं तो हम क्या करें?



आप की हाँ में हाँ हम मिलाते रहे, और कैसे करें आप को मुतमइन,
आप ने जो कहा हम ने बस वो किया, फिर भी हम बेवफ़ा हैं तो हम क्या करें?

हम हैं ‘कमसिन’ हंसी, ख़ुशअदा, ख़ुशअमल, तो क़ुसूर इस में कहिए हमारा है क्या,
हम पे उठती हैं गर आप के शहर में, इसलिये बदनिगाहें तो हम क्या करें?