Friday, November 26, 2010

उस के बिन बेगाना अपना घर लगता है



उस के बिन बेगाना अपना घर लगता है
अंजाना सा मुझको आज नगर लगता है
पल, महीनों से और घड़ियाँ बरसों सी गुज़रें
सदियों लम्बा तुम बिन एक प्रहर लगता है
दिन-दिन बढ़ता देख के उसका दीवानापन
उससे प्रेम जताते भी अब डर लगता है
मुझ में यूँ उसका खो जाना ठीक नहीं, वो
भूल जाएगा इक दिन अपना घर लगता है
वो हर फ़न का माहिर शख्स़ है साथी मेरा
यूँ मुझ से जलता हर एक बशर लगता है
यूँ तो उस पर बलिहारी है तन-मन लेकिन
उस के जुनूँ से थोड़ा-थोड़ा डर लगता है
उससे

जाकर तुम ही कह दो, अरी हवाओं!
उस के बिन अब जीना ही दूभर लगता है
कितने दर्द छुपे हैं उस की मुक्त हँसी में
मुझ को ऐसा जाने क्यूँ अक्सर लगता है
कहने को तो प्रेम के है बस ढ़ाई आखर
पढ़ने में तो इन को जीवन भर लगता है
उसकी मूरत है अब मेरे मन-मंदिर में
उस का दर ही अब मुझ को मंदर लगता है
प्रेम की आग में वर्ना बुत वो पिघल ही जाता
“कमसिन” उसका का तो दिल ही पत्थर लगता है


कृष्णा कुमारी कमसिन

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