Monday, September 26, 2011

ग़ज़ल

सर से पानी गुज़र गया होगा
डूब कर फिर वो मर गया होगा
धुन भी दुनिया सुधारने की सवार
आख़िरश खुद सुधर गया होगा
कोई ख़्वाहिश न जब हुई पूरी
हार कर सब्र कर गया होगा
अब न रोता है वो न हँसता है
ज़ुल्म हद से गुज़र गया होगा
भूखा बीमार तन पे तार नहीं
वो तो जीते जी मर गया होगा
सुनते ही मेरे हुस्न की तारीफ़
चांद उफ़ुक़ से उतर गया होगा
रुठ कर जो गया है अपनों से
कौन जाने किधर गया होगा
आइनों से वो मुहँ छुपाता है
अपनी सूरत से डर गया होगा
घर ही लौटा न पहुँचा शाला में
बच्चा पिटने से डर गया होगा
हो के गर्मीं में तर – बतर सूरज
झील में झट उतर गया होगा
तज्रिबेकार माना “कमसिन” को
क़िस्सा ऐमाल पर गया होगा

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