Saturday, July 30, 2011

“ज़रूरी तो नहीं”

“ज़रूरी तो नहीं”
वो भी करे / तुम से प्यार
जिन पर छिड़कते हो
तुम जान अपनी
या लायें तुम पर यक़ीन
नहीं करें फ़रेब / तुम से कभी
ज़रूरी तो नहीं / उनका भी हो मन
एकदम बालक सा
बिलकुल तुम्हारी ही तरह
वो भी सोचे / तुम्हारे ही दिलो-दिमाग़ से
देखे इस दुनिया को / तुम्हारी ही ऑखों से
ज़रूरी तो नहीं / हो हमेशा सच
जो देखा गया हो / दिन के उजाले में
या रात के अँधेरे में / वह सब झूठ
दो और दो मिलकर / बने हमेशा चार ही
या बाप की शादी में / न हो शरीक़ उस के
बेटे-बेटियाँ, पोते-पोतियाँ
और जन्म ले सकें / मादा भ्रूण
माँ की कोख से / ज़रूरी तो यह भी नहीं
हरा रंग हमेशा / आये नज़र
हरा ही / या
धरती सहती रहे हमेशा
आदमी की ज़्यादतियाँ
सूर्य उदित हो सदा
पूर्व दिशा से / और शाम होने पर ही
खोले आँखें चन्द्रमा / हौले-हौले-हौले
कोई ज़रूरी तो नहीं कि
तुम बुलाओ / और दौड़ी-दौड़ी / आये चिड़िया
तुम्हारी हथेली पर बैठकर
चुगने लगे दाना
या तुम गाओ / दर्द भरा गीत
और पिघलने लगे पत्थर भी
ज़रूरी नहीं बिल्कुल भी
तुम भी सोचो / मेरी ही तरह
ऊट-पटागं बातें
काग़ज़ पर चलाओ / क़लम
जैसे चलता है हल
धरती के सीने पर
और सृष्टि-पटल / हो जाता है
हरा-भरा
क्षितिज के पार तक
कि तुम भी लिखो
एक और कविता
कि इंसान में रहे मौज़ूद
इन्सनियत
चेतना रहे कायम
मुहब्बत रहे महफ़ूज
ज़िन्दगी रहे सलामत
बिल्कुल नहीं ज़रूरी
मगर
आज है ज़रूरत
इसकी
सख़्त

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